Note:

New Delhi Film Society is an e-society. We are not conducting any ground activity with this name. contact: filmashish@gmail.com


Sunday, September 13, 2009

Cinemala Festival

- NDFS Desk

Cinemala festival intends to take the films created by young artists to the young audience and is an effort to make a space for the new creative voices from all over the world which is denied by the crude logic of media industry. The previous editions of Cinemela film festival received overwhelming response from all quarters and the Limca Book of World Records has recognized the festival for its uniqueness. The festival also provides a platform where interactions among veteran film persons, young filmmakers, audience and others can be possible in informal manner. Final schedule can be looked at :
http://www.youthv.com/cinemela/content/view/20/40/

Friday, September 11, 2009

Anwar : Dream of a Dark Night

- NDFS Desk


The world we live in is in the throes of a desperate quest for peace and tranquility. But it is increasingly losing its way in an intractable maze of violent conflicts, ethnic skirmishes, economic meltdowns and corporate scams. Here, hope dies first. But dreamers do continue to dream. Meet Anwar. Anwar is Delhi slum-dweller, rag picker and car cleaner. He is a mere speck in the big picture of this bitter ongoing global struggle. But his story of resilience is no less significant, no less remarkable. Anwar has left behind a mortgaged piece of agricultural land in his pretty village in pursuit of a dream. He wants to build a movie hall of his own in his sleepy hamlet on the Indo-Bangladesh border. So he slogs from dawn to midnight in the big, heartless city. Four years on, and many ups and downs later, Anwar’s dream is a reality. His village picture hall is up and running and people are streaming in… This film – a story as much of one man as of Everyman – is an attempt to celebrate a defiant dream that illumines a night of all-enveloping, impenetrable darkness.


Director: Anwar Jamal, Script: Saibal Chatterjee, Camera: S. Chockalingam, Editor:Archit Rastogi, Producer: Rajiv Mehrotra


(This film is premiering at 8 PM on September 17 at the Open Frame international film festival. Venue- Stein Auditorium, India Habitat Centre, New Delhi.)

Tuesday, September 8, 2009

'कमीने' के मायने


- के बिक्रम सिंह

कई दफा भाषा इतना आगे बढ़ जाती है कि वह सिर्फ भाषा बनकर रह जाती है, उसके अलावा कुछ नहीं। मशहूर कहावत 'माध्यम स्वयं संदेश है' का एक यह भी मतलब है कि माध्यम के पास कोई संदेश देने लायक है ही नहीं। हाल ही में जब मैंने विशाल भारद्वाज की फिल्म 'कमीने' देखी तो मेरे मन में बार-बार यही ख्याल आता रहा। 'कमीने' में तकनीकी चमक है, अच्छी ध्वनि है, रहस्यपूर्ण छायांकन है जो कुछ चीजें साफ दिखाता है और बहुत सारी चीज़ें केवल सुझाता है। संगीत भी ठीक-ठाक ही है, लेकिन इसमें बदहवास तेज़ी है जो दर्शक को सोचने समझने का मौका नहीं देती और न ही ऐसे किरदार हैं जो दर्शक के मन पर हमेशा के लिए छाप छोडें। इसलिए यह फिल्म केवल फिल्म-भाषा के लिहाज़ से महत्वपूर्ण है, न कि एक कलाकृति के रुप में।

यदि हम कला-सिनेमा, जिसे मैं विचार-सिनेमा कहना ज़्यादा पसंद करता हूं, को अलग छोड़ दें तो मनोरंजन प्रधान सिनेमा में कुछ गिनी-चुनी ही फिल्में हैं जो फिल्म-भाषा के लिहाज से मील का पत्थर मानी जा सकती हैं। सिनेमा में ध्वनि आने के बाद कई दशकों तक भारतीय मुख्यधारा का सिनेमा एक सीधी गीतों भरी कहानी बनाने में ही मशगूल रहा। इसीलिए कई कहानी लेखक फिल्म के साथ जुड़े जिन्हे पटकथा लिखना बिलकुल नहीं आता था। फिल्म की भाषा साहित्यिक नहीं है क्योंकि वह केवल शब्दों पर निर्भर नहीं करती। फिल्म के लिए शब्द केवल एक तत्व है। बाकी और बहुत तत्व हैं जैसे कैमरा, शॉट लेने का तरीका, प्रकाश-संयोजन, सेट तथा लोकेशन, वेशभूषा, श्रृंगार, ध्वनि, पार्श्व-संगीत, कलाकर, अभिनय और एडिटिंग यानी संकलन इत्यादि। जिस लेखक को इन चीज़ों के बारे में ज्ञान नहीं है, वह फिल्म के लिए अच्छा पटकथा-लेखन नहीं कर सकता, क्योंकि किसी भी माध्यम में काम करने के लिए उसी माध्यम में सोचने की आवश्यकता है, चाहे वह साहित्य हो, चित्रकला हो या फिर सिनेमा।

मेरे विचार में 1975 में बनी 'शोले' ऐसी फिल्म थी जो फिल्म माध्यम में ही सोची गई थी। यह दीगर बात है कि उसे कुछ हॉलीवुड और कुछ कुरोसावा की 'सेवन समुराई' से चुराया गया था। इस फिल्म में लैंडस्केप, खुली लेकिन वीरानी कृति, साधारण जीवन से बड़े किरदार, एक ऐसी शाब्दिक भाषा जो हिंदी होते हुए भी न ही खड़ी बोली है और न ही किसी विशेष क्षेत्र की हिंदी, अच्छे किरदार तथा उत्कृष्ट ध्वनि एवं संगीत का इस्तेमाल कर जो फिल्म की एक नई भाषा गढ़ी गई वह भारतीय सिनेमा में पहले कभी देखने में नहीं आई थी। बहुत सालों के बाद सन 2004 में मणि रत्नम की 'युवा' ने फिल्म भाषा के इतिहास में एक नए मील के पत्थर की स्थापना की। इस फिल्म में तीन कहानियां अलग-अलग शुरू होती हैं, जो अंत में जाकर एक ही धारा में मिल जाती हैं। साहित्य जगत में यह तकनीक कई दफा इस्तेमाल की गई है, लेकिन हिंदी सिनेमा में मेरे ख्याल से यह पहली दफा देखा गया था।

लगभग पांच साल पहले जब मैंने विशाल भारद्वाज की 'मकबूल' (2004) फिल्म देखी थी तो मुझे यह लगा था कि यह फिल्म-निर्देशक सिनेमा से प्रयोग करने की हिम्मत कर सकता है। लेकिन 'मकबूबल' की सफलता उसके बनाने के ढंग पर कम और उसके कलाकरों और किरदारों पर ज्यादा निर्भर थी। मकबूल में कई पाए के कलाकार थे, जैसे पंकज कपूर, नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, इरफान खान, पीयूष मिश्रा और तब्बू। ये सब ऐसे कलाकार हैं जो छोटे किरदार को भी जीवंत बना सकते हैं। इसके अलावा 'मकबूल' शेक्सपियर के नाटक 'मैकबेथ' पर आधारित थी और उसमें अतिनाटकीयता का भरपूर योग था।

इसके दो साल बाद 'ओमकारा' आई जो 'ओथेलो' पर आधारित थी। 'मकबूल' और 'ओमकारा' में ज़मीन-आसमान का फ़र्क था। 'ओमकारा' आधुनिक नाटक की भाषा को बिलकुल तज कर फिल्म की अपनी एक भाषा गढ़ती है जो एक तरफ कहीं जाकर 'शोले' से मिलती है और दूसरी तरफ स्वांग और तमाशा की लोक नाटक शैलियों से, जिनमें 'खेला' पर अधिक ज़ोर रहता था। 'ओमकारा' में कोई बड़े कलाकार नहीं थे। इसमें अजय देवगन और करीना कपूर जैसे स्टार ज़रुर थे, लेकिन वे अपने अभिनय के लिए कुछ ज़्यादा नहीं जाने जाते थे।

'ओमकारा' ने यह सिद्ध कर दिया कि विशाल भारद्वाज साधारण कलाकारों से भी प्रभावशाली भूमिकाएं करवा सकता है। 'ओमकारा' के सबसे महत्वूर्ण 'लंगड़ा त्यागी' का किरदार सैफ अली खान ने निभाया था जो उस समय तक कुछ नर्म-गर्म शहरी किरदार निभाने के लिए जाना जाता था। विशाल भारद्वाज के निर्देशन में वह एक बिल्कुल नए रुप में उभर कर सामने आया, जिसके बाद सैफ अली खान के करियर को दूसरा जन्म मिला। 'ओमकारा' किसी भी घटनाक्रम को विस्तार से नहीं कहती, केवल इतना बताती है कि बाकी चीज़ें दर्शक खुद समझ जाएं। यह फिल्म संवाद का भी बहुत कम सहारा लेती है। शाब्दिक भाषा की दृष्टि से 'शोले' की ही तरह यह फिल्म भी एक नई भाषा गढ़ती है, जो न ही बुंदेलखंड की है, न ही राजस्थान की और न ही पूरब की। एक तरह की खिचड़ी है, लेकिन यह खिचड़ी अच्छी लगती है, और एक ऐसे देश का ज़रुर आह्वान करती है जहां पर 'ओमकारा' का घटनाक्रम घट सकता था।

इसके विपरीत 'कमीने' केवल हिंसा, हैंड-हेल्ड यानी हस्तचालित कैमरा, अंधेरे के प्रयोग और शोर भर ध्वनि पर निर्भर करती है। प्रियंका चोपड़ा के किरदार के अलावा कोई भी किरदार मन को नहीं छूता। जिस संसार में 'कमीने' के लोग रहते हैं वह शायद हॉलीवुड के निर्देशक क्वेंटिन तरनतीनो के संसार से प्रेरित हुआ है जो साधारण भारतीय दर्शक की कल्पनाशक्ति के बाहर है। यह सही है कि अब भारत की लगभग पचास प्रतिशत आबादी छोड़े-बड़े शहरों में रहती है, लेकिन इनमें रहने वाले लोग अब भी शहरों के अंधेरों के बाशिंदे नहीं हैं क्योंकि वे आज भी गांव के बहुत करीब हैं। इसमें शक नहीं कि विशाल भारद्वाज एक निहायत ही प्रतिभाशाली निर्देशक हैं, किंदु यदि उन्हे क्राइजिसटोफ किस्लोविस्की का थोड़ा सा भी ऋण चुकाना है, जिनक फिल्में देखकर उन्हे फिल्म बनाने की प्रेरणा मिली थी, तो उन्हे फिल्म भाषा के साथ-साथ फिल्म में विचार की तरफ भी ध्यान देना होगा। हमारे यहां विचारहीन सिनेमा की बहुतायत है। इसे और उत्कृष्ट बनाने के लिए विशाल भारद्वाज जैसे निर्देशक की आवश्यकता नहीं है।

(K Bikram Singh is a very senior writer, filmmaker & journalist. This article has been published in the hindi daily 'Hindustan'. Mr Singh can be contacted at kbikramsingh@bol.net.in)