Note:

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Thursday, February 18, 2010

India has dream run at Berlin film festival

-NDFS Desk
India has a dream run with eight feature films including My Name Is Khan, Peepli Live and Manthan at the ongoing Berlin International Film Festival.
In its 60th anniversary, the festival has selected a wide range of Indian Bollywood and arthouse films in several languages. They are represented across different festival sections.
There are also Indian films in the European Film Market that runs parallel to the Berlinale. No wonder there are nearly a 100 Indians at the festival.
The eight features include Karan Johar’s My Name is Khan, Dev Benegal’s Road, Movie, Anusha Rizvi’s Peepli Live, Laxmikant Shetgaonkar’s Paltadacho Munis (Man Beyond the Bridge, Konkani), Umesh Kulkarni’s Vihir (the Well, Marathi), Kaushik Ganguly’s Arekti Premer Golpo (Just Another Love Story, Bengali), Shyam Benegal’s Manthan, Satyajit Ray’s Charulata and Madhusree Dutta and team’s Cinema City.

Sunday, February 14, 2010

अब मत कहना ख़ान का मतलब...मुसलमान


- रवीश कुमार

माय नेम इज़ ख़ान हिन्दी की पहली अंतर्राष्ट्रीय फिल्म है। हिन्दुस्तान,इराक,अफ़गानिस्तान,जार्जिया का तूफान और अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव। कई मुल्क और कई कथाओं के बीच मुस्लिम आत्मविश्वास और यकीन की नई कहानी है। पहचान के सवालों से टकराती यह फिल्म अपने संदर्भ और समाज के भीतर से ही जवाब ढूंढती है। किसी किस्म का विद्रोह नहीं है,उलाहना नहीं है बल्कि एक जगह से रिश्ता टूटता है तो उसी समय और उसी मुल्क के दूसरे हिस्से में एक नया रिश्ता बनता है। विश्वास कभी कमज़ोर नहीं होता। ऐसी कहानी शाहरूख जैसा कद्दावर स्टार ही कह सकता था। पात्र से सहानुभूति बनी रहे इसलिए वो एक किस्म की बीमारी का शिकार बना है। मकसद है खुद बीमार बन कर समाज की बीमारी से लड़ना। मुझे किसी मुस्लिम पात्र और नायक के इस यकीन और आत्मविश्वास का कई सालों से इंतज़ार था। राम मंदिर जैसे राष्ट्रीय सांप्रदायिक आंदोलन के बहाने हिन्दुस्तान में मुस्लिम पहचान पर जब प्रहार किया गया और मुस्लिम तुष्टीकरण के बहाने सभी दलों ने उन्हें छोड़ दिया,तब से हिन्दुस्तान का मुसलमान अपने आत्मविश्वास का रास्ता ढूंढने में जुट गया। अपनी रिपोर्टिंग और स्पेशल रिपोर्ट के दौरान मेरठ, देवबंद, अलीगढ़, मुंबई, दिल्ली और गुजरात के मुसलमानों की ऐसी बहुत सी कथा देखी और लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की। जिसमें मुसलमान तुष्टीकरण और मदरसे के आधुनिकीकरण जैसे फालतू के विवादों से अलग होकर समय के हिसाब से ढलने लगा और आने वाले समय का सामना करने की तैयारी में शामिल हो गया। नुक़्ते के साथ ख़ान का तलफ्फ़ुज़ कैसे करें इस पर ज़ोर देकर बताता है कि आप मुसलमानों के बारे में कितना कम जानते हैं। मुझे आज भी वो दृश्य नहीं भूलता। अहमदाबाद के पास मेहसाणां में अमेरिका के देत्राएत से आए करोड़पति डॉक्टर नकादर। टक्सिडो सूट में। एक खूबसूरत बुज़ूर्ग मुसलमान। गांव में करोड़ों रुपये का स्कूल बना दिया। मुस्लिम बच्चों के लिए। लेकिन पढ़ाने वाले सभी मज़हब के शिक्षक लिए गए। नकादर ने कहा था कि मैं मुसलमानों की एक ऐसी पीढ़ी बनाना चाहता हूं जो पहचान पर उठने वाले सवालों के दौर में खुद आंख से आंख मिलाकर दूसरे समाजों से बात कर सकें। किसी और को ज़रिया न बनाए। इसके लिए उनके स्कूल के मुस्लिम बच्चे हर सोमवार को हिन्दू इलाके में सफाई का काम करते हैं। ऐसा इसलिए कि शुरू से ही उनका विश्वास बना रहे। कोशिश होती है कि हर मुस्लिम छात्र का एक दोस्त हिन्दू हो। स्कूल में हिन्दू छात्रों को भी पढ़ने की इजाज़त है। नकादर साहब से कारण पूछा था। जवाब मिला कि कब तक हमारी वकालत दूसरे करेंगे। कब तक हम कांग्रेस या किसी सेकुलर के भरोसे अपनी बेगुनाही का सबूत देंगे। आज गुजरात में कांग्रेस हिन्दू सांप्रदायिक शक्तियों के भय से मुसलमानों को टिकट नहीं देती है। हम किसी को अपनी बेगुनाही का सबूत नहीं देना चाहते। हम चाहते हैं कि मुस्लिम पीढ़ी दूसरे समाज से अपने स्तर पर रिश्ते बनाए और उसे खुद संभाले। बीते कुछ सालों की यह मेरी प्रिय सत्य कथाओं में से एक है। लेकिन ऐसी बहुत सी कहानियों से गुज़रता चला गया जहां मुस्लिम समाज के लोग तालीम को बढ़ावा देने के लिए तमाम कोशिशें करते नज़र आए। उन्होंने मोदी के गुजरात में किसी कांग्रेस का इंतज़ार छोड़ दिया। मुस्लिम बच्चों के लिए स्कूल बनाने लगे। रोना छोड़कर आने वाले कल की हंसी के लिए जुट गए। माइ नेम इज खान में मुझे नकादर और ऐसे तमाम लोगों की कोशिशें कामयाब होती नज़र आईं, जो आत्मविश्वास से भरा मुस्लिम मध्यमवर्ग ढूंढ रहे थे। फिल्म देखते वक्त समझ में आया कि इस कथा को पर्दे पर आने में इतना वक्त क्यों लगा। खुदा के लिए,आमिर और वेडनेसडे आकर चली गईं। इसके बाद भी ये फिल्म क्यों आई। ये तीनों फिल्में इंतकाम और सफाई की बुनियाद पर बनी हैं। इन फिल्मों के भीतर आतंकवाद के दौर में पहचान के सवालों से जूझ रहे मुसलमानों की झिझक,खीझ और बेचैनी थी। माइ नेम इज ख़ान में ये तीनों नहीं हैं। शाहरूख़ ख़ान आज के मुसलमानों के आत्मविश्वास का प्रतीक है। उसका किरदार रिज़वान ख़ान सफाई नहीं देता। पलटकर सवाल करता है। आंख में आंख डालकर और उंगलियां दिखाकर पूछता है। इसलिए यह फिल्म पिछले बीस सालों में पहचान के सवाल को लेकर बनी हिन्दी फिल्मों में काफी बड़ी है। अंग्रेज़ी में भी शायद ऐसी फिल्म नहीं बनी होगी। इस फिल्म में मुसलमानों के अल्पसंख्यक होने की लाचारी भी नहीं है और न हीं उनकी पहचान को चुनौती देने वाले नरेंद्र मोदी जैसे फालतू के नेताओं की मौजूदगी है। यह फिल्म दुनिया के स्तर पर और दुनिया के किरदार-कथाओं से बनती है। हिन्दुस्तान की ज़मीं पर दंगे की घटना को जल्दी में छू कर गुज़र जाती है। यह बताने के लिए कि मुसलमान हिन्दुस्तान में जूझ तो रहा ही है लेकिन वो अब उन जगहों में भेद भाव को लेकर बेचैन है जिनसे वो अपने मध्यमवर्गीय सपनों को साकार करने की उम्मीद पालता है। अमेरिका से भी नफरत नहीं करती है यह फिल्म। माय नेम इज़ ख़ान की कथा में सिर्फ मुस्लिम हाशिये पर नहीं है। यह कथा सिर्फ मुसलमानों की नहीं है। इसलिए इसमें एक सरदार रिपोर्टंर बॉबी आहूजा है। इसलिए इसमें मोटल का मालिक गुजराती है। इसलिए इसमें जार्जिया के ब्लैक हैं। अमेरिका में आए तूफानों में मदद करने वाले ब्लैक को भूल गए। लेकिन माइ नेम इज़ ख़ान का यह किरदार किसी इत्तफाक से जार्जिया नहीं पहुंचता। जब बहुसंख्यक समाज उसे ठुकराता है,उससे सवाल करता है तो वो बेचैनी में अमेरिका के हाशिये के समाज से जाकर जुड़ता है। तूफान के वक्त रिज़वान उनकी मदद करता है। उसके पीछे बहुत सारे लोग मदद लेकर पहुंचते हैं। फिल्म की कहानी अमेरिका के समाज के अंतर्विरोध और त्रासदी को उभारती है और चुपचाप बताती है कि हाशिये का दर्द हाशिये वाला ही समझता है। इराक जंग में मंदिरा के अमेरिकी दोस्त की मौत हो जाती है। उसका बेटा मुसलमानों को कसूरवार मानता है। उसकी व्यक्तिगत त्रासदी उस सामूहिक पूर्वाग्रह में पनाह मांगती है जो एक दिन अपने दोस्त समीर की जान ले बैठती है। इधर व्यक्तिगत त्रासदी के बाद भी रिज़वान कट्टरपंथियों के हाथ नहीं खेलता। मस्जिद में हज़रत इब्राहिम का प्रसंग काफी रोचक है। यह उन कट्टरपंथी मुसलमानों के लिए है जो यथार्थ के किसी अन्याय के बहाने आतंकवाद के समर्थन में दलीलें पेश करते हैं। रिज़वान उन्हें पकड़वाने की कोशिश करता है। वो कुरआन शरीफ से हराता है फिर एफबीआई की मदद मांगता है। घटना और किरदार अमेरिका के हैं लेकिन असर हिन्दुस्तान के दर्शकों में हो रहा था। जार्ज बुश और बराक हुसैन ओबामा के बीच के समय की कहानी है। ओबामा मंच पर आते हैं और नई उम्मीद का संदेश देते हैं। यहीं पर फिल्म अमेरिका का प्रोपेगैंडा करती नज़र आती है। मेरी नज़र से इस फिल्म का यही एक कमज़ोर क्षण है। बराक हुसैन ओबामा रिज़वान से मिल लेते हैं। वैसे ही जैसे काहिरा में जाकर अस्सलाम वलैकुम बोलकर दिल जीतने की कोशिश करते हैं लेकिन पाकिस्तान और अफगानिस्तान पर उनकी कोई साफ नीति नहीं बन पाती। याद कीजिए ओबामा के हाल के भाषण को जिसमें वो युद्ध को न्यायसंगत बताते हैं और कहते हैं कि मैं गांधी का अनुयायी हूं लेकिन गांधी नहीं बन सकता।
इसके बाद भी यह हमारे समय की एक बड़ी फिल्म है। हॉल में दर्शकों को रोते देखा तो उनकी आंखों से संघ परिवार और सांप्रदायिक दलों की सोच को बहते हुए भी देखा। जो सालों तक हिन्दू मुस्लिम का खेल खेलते रहे। मुंबई में इसकी आखिरी लड़ाई लड़ी गई। कम से कम आज तक तो यही लगता है। एक फिल्म से दुनिया नहीं बदल जाती है। लेकिन एक नज़ीर तो बनती ही है। जब भी ऐसे सवाल उठाये जायेंगे कोई कऱण जौहर,कोई शाहरूख के पास मौका होगा एक और माइ नेम इज़ ख़ान बनाने का। फिल्म देखने के बाद समझ में आया कि क्यों शाहरूख़ ख़ान ने शिवसेना के आगे घुटने नहीं टेके। अगर शाहरूख़ माफी मांग लेते तो फिल्म की कहानी हार जाती है। ऐसा करके शाहरूख खुद ही फिल्म की कहानी का गला घोंट देते। शाहरूख़ ऐसा कर भी नहीं सकते थे। उनकी अपनी निजी ज़िंदगी भी तो इस फिल्म की कहानी का हिस्सा है। हिन्दुस्तान में तैयार हो रही नई मध्यमवर्गीय मुस्लिम पीढ़ी की आवाज़ बनने के लिए शाहरूख़ का शुक्रिया।


(साभार: naisadak.blogspot.com)

Friday, February 12, 2010

'Kavi' story of an Indian slave boy makes it to Oscars


-NDFS Desk

NEW DELHI: There may be no Indian hopefuls in this year's Oscar race after AR Rahman's ouster, but India still figures in the competition with 'Kavi', a short film about a young Indian boy trapped by child labour, which has been nominated in the 'Short Film (Live Action)' category.
The 19-minute-long fictional film in Hindi by American debutante director Gregg Helvey is about a boy who wants to escape from the brick kiln where he is forced to work as a modern-day slave. Helvey who shot the film on a shoe string budget in and around Wai, near Mumbai, said that the goal of the film was to "motivate action through awareness". "What incredible support for Kavi. 30% of our DVD proceeds are going to anti-slavery orgs. Hope this gets eyes on Human Trafficking," wrote Helvey, a student of the University of South California, on his Twitter account. "My goal is to reach at least 50,000 people with 'Kavi' in the first year. The purpose is to motivate action through awareness," he added in a statement. Last year's Oscars were dominated by the Mumbai-based-potboiler 'Slumdog Millionaire' which won eight Oscars, including two for musician Rahman and one for sound artiste Resul Pokutty. 'Smile Pinki' a documentary by American director Megan Mylan about a young Indian girl stigmatised due to her cleft lip had also won the Academy Award in the 'Best Documentary Short Subject' category.

Monday, February 1, 2010

'The Female Nude' gets National Award


-NDFS Desk


The 56th National Film Awards have been announced and the documentary The Female Nude that we featured on this site in August 2009 itself has been declared the Best Non Feature Film on Social Issues. It is heartening and redeeming. It has been produced by PSBT and direced by the renowned painter Hem Jyotika and the celebrated poet of our times Devi Prasad Mishra. The film was shortlisted in the South Asia Livelihood Documentary Film Festival 2009. The film has been screened at the annual Open Frame International Film Festival, at the INPUT Film Festival, Kolkata, at the Kalam Film Festival, Lucknow, to great critical acclaim. And now the national award for the film – the journey does not seem to sag.
The film is about a model, who sits up for painters and sculptors. She lives in the slum of a metro where she lives with her four step sons, and her own daughter. She must have posed for so many artists but till date she has not been invited to any of the exhibitions. She feels alienated- she is a social margin in the power structure of art. And her wages are horribly low. At one point in the film she says - इस शहर में खोने का मजा तभी है जब कोई ढूंढने वाला हो, लेकिन मोको ढूंढने वाला कोई नहीं है । Great grumbling of deep pathos, and great capturing.
The film is also about attitudes – she is an easy target of male sexual fantasies. She has been abandoned by her husband; now she has to protect herself from the stalkers in her struggle to earn her livelihood. But not all has been lost - she has been immortalized in the paintings and sculptures, and, of course, in the documentary that has been made on her life.
It is the story of the struggle of a woman for livelihood, dignity and self respect. It is the story of a woman’s alienation in the cityscape; it is also the story of redemption and hope.

पांचवां गोरखपुर फिल्म उत्सव


- NDFS Desk

पांचवां गोरखपुर फिल्म उत्सव चार फरवरी से शुरू हो रहा है। जन संस्कृति मंच और गोरखपुर फिल्म सोसायटी के संयुक्त आयोजन में पूर्वी उत्तर प्रदेश के इस शहर में होने वाले इस फिल्म उत्सव ने काफी कम समय में अपनी एक साख बनाई है। यह फ़ेस्टिवल सिर्फ़ देश-दुनिया की नई फीचर-गैरफीचर फ़िल्में देखने-दिखाने का मंच नहीं है। यह एक सांस्कृतिक अभियान है। भारतीय भाषाओं की चुनिंदा फ़िल्मों के अलावा दुनिया भर की क्लासिक फ़िल्मों से भी एक चयन इसमें शामिल किया जाता है। इसमें का बच्चों का अलग सेक्शन है। फ़िल्मों के चयन का आधार महज़ उनमें निहित सामाजिक वक्तव्य है। फ़रवरी के पहले हफ़्ते में यह फ़िल्मोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इस साल यह अपने पांचवें साल में पहुँच रहा है और चार फ़रवरी से सात फ़रवरी तक धूम-धाम से मनाया जायेगा। फ़िल्मों के साथ-साथ अन्य सांस्कृतिक आयोजन भी चलते रहते हैं। नाटकों, गीतों, पोस्टर प्रदर्शनियों और कई दूसरी कल्चरल एक्टिविटीज़ के अलावा युवा और छात्र इस फ़िल्मोत्सव का इसलिये भी इंतज़ार करते हैं क्योंकि यह विचार-विमर्श को सार्थक ज़मीन देता है। आयोजन के लिये ख़र्च आम लोगों और शुभाकांक्षियों से इकट्ठा किया जाता है। इनमें गोरखपुर फिल्म सोसायटी के साथ साथ यहां के युवा संस्कृतिकर्मियों की एक संस्था एक्स्प्रेशन और जन संस्कृति मंच के देश भर में फैले शुभचिंतक-मित्र, फिल्मकार, रंगकर्मी, साहित्यकार, पत्रकार सभी शामिल हैं।
पांचवें गोरखपुर फिल्म उत्सव के उदघाटन सत्र में दिल्ली से आ रहे महमूद फारुकी दास्तानगोई पेश करेंगे। महमूद एक पत्रकार, लेखक, फिल्मकार, रंगमंच कलाकार रहे हैं जिन्होने बीसवीं शताब्दी के शुरुआती दशकों में लुप्त हो चुके दास्तानगोई नाम के फ़न को पुनर्जीवित किया है और देश विदेश में इसकी बेहतरीन प्रस्तुतियां कर चुके हैं। इसके बाद सईद मिर्जा की फिल्म 'सलीम लंगड़े पे मत रो' दिखाई जाएगी और उस पर चर्चा होगी। सईद मिर्ज़ा की फिल्म 'अलबर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है' की भी स्क्रीनिंग की जाएगी। समारोह के दौरान दिखाई जाने वाली अन्य प्रमुख फिल्मों में गिरीश कसरावल्ली की 'द्वीप', गीतांजलि राव की एनीमेशन फिल्म 'प्रिंटेड रेनबो', अल्बर्ट लैमोरेस्सी की 'रेड बैलून', माजिद मजीदी की 'सॉन्ग ऑफ द स्पैरो', ऋत्विक घटक की 'मेघे ढका तारा' और नेपाल के माओवादी आंदोलन पर आनंद स्वरुप वर्मा द्वारा बनाई बनी एक अहम राजनीतिक फिल्म 'बर्फ की लपटें' का प्रदर्शन किया जाएगा। इनके अलावा भी कई बेहतरीन डॉक्यूमेंट्र और फीचर फिल्मों का प्रदर्शन होना है। हर फिल्म के बाद उस पर विशेष परिचर्चा का आयोजन होगा। चार दिनों के इस समारोह में हिस्सा लेने वाले प्रमुख लोगों में फिल्मकार सईद मिर्जा, गिरीश कसरावल्ली, आनंद स्वरुप वर्मा, जवरीमल्ल पारख, अनुपमा श्रीनिवासन, पारोमिता वोहरा, अशोक भौमिक, आशीष श्रीवास्तव, तरुण भारती और देबरंजन सारंगी के नाम शामिल हैं। सांस्कृतिक कार्यक्रमों के नाम पर दास्तानगोई के अलावा असम के जनगायक लोकनाथ गोस्वामी भी अपना कार्यक्रम प्रस्तुत करेंगे। समारोह में शामिल होने के लिए या किसी भी तरह की जानकारी के लिए गोरखपुर फिल्म सोसायटी के संयोजक मनोज कुमार सिंह (91-9415282206) या जन संस्कृति मंच के फिल्म ग्रुप के संयोजक संजय जोशी (91-9811577426) से संपर्क किया जा सकता है। विस्तृत विवरण के लिए गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल का ब्लॉग देखें।


(सौजन्य- गोरखपुर फिल्म सोसायटी)